मनीष मूंदड़ा पैसा जहां से भी लाते हों, पर सिनेमा अच्छा बनाते हैं। इसी बात को लेकर उनकी जै जैकार भी होती रही है, लेकिन इन फिल्मों से पैसा भी वह बढ़िया बनाते हैं। कभी शाहरुख खान की कंपनी को अपनी फिल्मोग्राफी से चौंधियाते हैं तो कभी मुकेश अंबानी की कंपनी को। लेकिन, समय तेजी से बदल रहा है। ‘मसान’, ‘न्यूटन’ और यहां तक कि ‘कड़वी हवा’ जैसी फिल्में देखने दर्शक अब सिनेमाघर तो नहीं ही जाएंगे, हां ओटीटी पर ऐसी फिल्में वो घर में चाय पराठे के साथ इत्मीनान से देख सकते हैं।

मनीष मूंदड़ा के सिनेमा का भविष्य भी वही है।राम प्रसाद की तेहरवी’ (फिल्म का नाम यही है) एक औसत फिल्म है। सिनेमाघरों में मास्क और सैनिटाइजर के साथ भी देखी जा सकती है, लेकिन तब जब टिकट का पैसा कोई और दे रहा हो। अपनी मेहनत की कमाई से फिल्म देखने के लिए बड़ा जिगरा चाहिए इन दिनों थिएटर जाने का। वैसा ही जैसा यहां एक मां को चाहिए अपने बेटों के ताने सुनते रहने का। कहानी शुरू होते ही बाप गुजर जाता है। बेटे, बहुएं, पड़ोसी, रिश्तेदार सब जुटने शुरू होते हैं। वैसे तो कोरोना काल में लोग अपने पिता और सगे भाई तक की अर्थी उठाने नहीं गए, गनीमत है

कि ये कहानी थोड़ा उससे पहले की है। मामला पुरानी बातों और पुरानी यादों से शुरू होता है और रोलर कोस्टर की तरह ऊपर नीचे होते हुए उस सिरे तक पहुंचता है जहां एक मां भी आत्मनिर्भर भारत की पहचान बन जाती है।सीमा पाहवा ने सेकेंड इनिंग्स में बतौर अभिनेत्री कमाल का काम किया है। पहली बार वह निर्देशक बनी हैं, इसके लिए उनकी दाद दी जानी चाहिए।

फिल्म आप सिनेमाघर में देख रहे हैं या फिर मेल पर भेजे गए स्क्रीनर के सहारे लैपटॉप पर, समीक्षा के सितारे इस पर भी बहुत निर्भर करते हैं। ओटीटी के लिए बनी फिल्म को घर में देखते समय कोई रिस्क नहीं है। सिनेमाघर में अपने पैसे से फिल्म देखते समय दो सीट दूर बैठा शख्स नाक में मास्क का रेशा जाने से भी छींक दे तो आधे लोगों की जान हलक में अटक जाती है।