क्या आपने भी देखा है ये नज़ारा:–काश इस तरह का नज़ारा एक बार फिर से देखने को मिल सकता है लेकिन आधुनिकता की दौड से अब इक्का-तांगा विलुप्त हो चुका है
कभी शानो शौकत की सवारी कहे जाने वाले इक्का तांगा की सवारी राजशाही सवारी मानी जाती थी उस दौर में संसाधनों की बहुत कमी थी उस उस समय के लोग तांगें की सवारी को ही उत्तम सवारी मानते हुए स़डकों के किनारे ख़डे होकर इक्के-तांगों का इंतजार किया करते थे उस पर सवार होकर अपने गंतव्य तक की यात्रा पूरी किया करते थे लेकिन अब गांव-गांव, घर-घर दुपहिया व चारपहिया वाहनों की बाढ़ सी आ गई है।

पहले जमाने में जहां लोग इक्के व तांगें पर शौक से बैठकर यात्रा किया करते थे वहीं अब इस सवारी पर बैठना अपनी मर्यादा व शान के खिलाफ समझते हैं “एक समय हुआ करता था जब घर घर तांगे वाले हुआ करते थे और उनके तांगों की छमछम सडकों पर सुनाई पडती थी आधुनिकता के दौर के साथ तांगा चालकों के इक्के-तांगों पर चढ़ने का शौक रखने वालों का अभाव हो गया। आमदनी घटने के साथ ही इनके दुर्दिन शुरू हुए तो इन लोगों ने अपने परंपरागत धंधे को छो़डकर अन्य धंधों की ओर रूख कर लिया है
एक वह भी दौर देखा है जब दिल्ली की सड़कों पर इक्के तागे घोड़ो कि टापों के साथ संगीत कि लय कि तरह दौड़ते चले जाते थे और सवारियां खूब मजे लेती थीं समय ने घोड़ों से उनकी टापें छीन ली हैं और दिल्ली वालों से उनका इतिहास, उनकी तहजीब और उनके तांगे आज भी लोगों के जेहन में वो दिन याद हैं जब तांगे फतेहपुरी खारी बावली अजमेरी गेट सदर बाजार महरौली ओखला आदि तक का सफर किया करते थे

उस दौर में एक मजेदार गाना खूब बजता था जो बच्चों को बहुत पसंद था वह था ‘लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा घोड़े की दुम पर जो मारा हथौड़ा तांगों में हर प्रकार के घोड़े जुता करते थे जैसे कश्मीर पंजाब कूचबिहार और आगरा के घोड़े अच्छी नस्ल के माने जाते थे एक तांगे वाले से बहुत से परिवार जुड़े होते थे जैसे घोड़े की नालें बनाने वाले का परिवार घोड़े का चारा बनाने वाले का परिवार घोड़े का तांगा बनाने वालों का परिवार, घोड़े की चिकित्सा करने वालों का परिवार आदि।’
इक्का तांगा पुरानी दिल्ली की शाहजहानाबाद आबादी सभ्यता का एक जीता-जागता उदाहरण था जिसे जियाऊ भी कहा जाता था पहलवान तांगे वाला तांगे के दौर से पहले घोड़ों एवं जानवरों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ियां मौजूद थीं जैसे इक्का चंडोल पालकी नालकी डोली शिकरम आदि यह उस दौर कि बात है जब न तो सड़कें ही ठीक-ठाक बनी हुई थीं और न ही कोई सुरक्षा थी जिसके कारण लोग बाहर निकलने से डरा करते थे केवल लाव लश्कर के साथ नवाबों राजाओं बादशाहों आदि की सवारियां ही निकलती थीं तो उनके साथ बहुत सारे हाथी, घोड़े ऊंट आदि निकला करते थे।
उस दौर का वह इक्का तांगा तेज दौड़ती सवारियां आज कि महंगी कारो से मात खा चुका है भले ही बसंती की धन्नो ने मर्द तांगे वाले ने दिलीप कुमार ने ओ.पी. नैयर ने अपने घोड़ों और तांगों द्वारा कितनी ही मोटरों को हरा दिया हो परंतु आज जमीन से जुड़ी सच्चााई यही है कि अब दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले तांगे एतिहासिक अभिलेको तक सिमट चुके हैं
तांगे की सवारी की सबसे बड़ी खासियत यह थी की उनका प्रदूषण से मुक्त होना यही नहीं एक तांगा वास्तव में 2 मोटर गाड़ियों का बोझा ढो सकता था जहां बैलगाड़ी एक दिन में 20 किलोमीटर का सफर तय करती थी वहीं एक तांगा लगभग 80 किलोमीटर दौड़ सकता था इस तरह तांगों के समाप्त होने का अर्थ है एक युग की समाप्ति एक सभ्यता की समाप्ति और एक अनोखे इतिहास का खात्मा
दर असल आज कल के युवा अपने पूर्वजों की निशानी को कायम रखना नहीं चाहते सचमुच अब तो एसा लगता है इक्का-तांगा शब्द अब सिर्फ इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह गया है
प्रस्तुति———-तैय्यब अली